कहानी संग्रह >> जवान मिट्टी जवान मिट्टीचन्द्रकिरण सौनरेक्सा
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प्रस्तुत है श्रेष्ठ कहानी संग्रह....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
श्रीमती जानकी एवं श्री राम फल गुप्त की सुपुत्री चन्द्रकिरण (निक्की) का
जन्म 19 अक्टूबर 1920 को नौसहरा (पेशावर छावनी, अब पाकिस्तान) में हुआ।
सेना में सेवारत पिता का स्थानान्तरण बाद में मेरठ में हो गया। वहीं किरण
की शिक्षा दीक्षा शुरू हुई। ग्यारह वर्ष की आयु तक प्रेमचन्द कौशिक
सुदर्शन ही नहीं रामायण और महाभारत को पढ़ डाले और कहानियाँ लिखने लगीं।
16 वर्ष की आयु में स्वाध्याय से साहित्यरत्न की परीक्षा उत्तीर्ण की।
उन्होंने स्वाध्याय से बंगला, गुजराती और अंग्रेजी भी सीखी। 22 वर्ष में
आकाशवाणी में लेखिका-सम्पादिका रहीं। अब तक 150 नाटक एवं कथाएँ लिखी हैं।
काफी समय तक वे छाया, और ज्योत्स्ना उपनामों से भी छपती रहीं।
कई विश्वविद्यलयों में उनके कथा- साहित्य पर शोधकर्ताओं को पी. एच. डी की
उपाधियाँ मिलीं।
उनका विवाह 30 दिसम्बर 1940 को हिन्दी के लेखक-चित्रकार (बाद में पेशे से सिविल सर्वेण्ट) श्री कान्तिचन्द्र सौनरेक्सा से हुआ। अब वह पाँच सन्तानों की माता और ग्यारह बच्चों की दादी-नानी हैं। वह दो बार दुनिया के अनेक हिस्सों में भ्रमण कर आयी हैं।
उनके प्रथम कथा संग्रह ‘आदमखोर’ पर अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन ने उन्हें सेक्सपियर पुरस्कार और बाद में 1987 में सारस्वत सम्मान से विभूषित किया। 1988 में उ.प्र. साहित्य सम्मेलन ने उन्हें सुभद्रा कुमारी चौहान स्वर्ण पदक दिया। उनके उपन्यास ‘चन्दन चाँदनी’ 1982 और ‘वंचिता’ 1988 में प्रकाशित हुए।तीसरा उपन्यास ‘और दिया जलता रहा’ आकाशवाणी से प्रकाशित हुआ। 1989 में दूरदर्शन में आमन्त्रण पर उन्होंने एक टेली फिल्म गुमराह बनायी जो 14 अप्रैल 1990 को प्रकाशित हुई। विख्यात फिल्म ‘सलाम बाम्बे’ के सह निर्देशक श्री हसनकुटी उनकी कहानी ‘हिरणी’ पर फिल्म बना रहे हैं।
उनका विवाह 30 दिसम्बर 1940 को हिन्दी के लेखक-चित्रकार (बाद में पेशे से सिविल सर्वेण्ट) श्री कान्तिचन्द्र सौनरेक्सा से हुआ। अब वह पाँच सन्तानों की माता और ग्यारह बच्चों की दादी-नानी हैं। वह दो बार दुनिया के अनेक हिस्सों में भ्रमण कर आयी हैं।
उनके प्रथम कथा संग्रह ‘आदमखोर’ पर अखिल भारतीय हिन्दी सम्मेलन ने उन्हें सेक्सपियर पुरस्कार और बाद में 1987 में सारस्वत सम्मान से विभूषित किया। 1988 में उ.प्र. साहित्य सम्मेलन ने उन्हें सुभद्रा कुमारी चौहान स्वर्ण पदक दिया। उनके उपन्यास ‘चन्दन चाँदनी’ 1982 और ‘वंचिता’ 1988 में प्रकाशित हुए।तीसरा उपन्यास ‘और दिया जलता रहा’ आकाशवाणी से प्रकाशित हुआ। 1989 में दूरदर्शन में आमन्त्रण पर उन्होंने एक टेली फिल्म गुमराह बनायी जो 14 अप्रैल 1990 को प्रकाशित हुई। विख्यात फिल्म ‘सलाम बाम्बे’ के सह निर्देशक श्री हसनकुटी उनकी कहानी ‘हिरणी’ पर फिल्म बना रहे हैं।
मेरी कथा यात्रा
मेरे सुधि पाठको !
रवि बाबू का यह गीत प्रायः आप सभी ने सुना या पढ़ा होगा-‘एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे। यदि तोर डाकशुने केउ ना आशे तबे एकला चलो रे। सचमुच ही संसारयात्रा हो या तीर्थयात्रा, यदि उस घड़ी कोई साथी साथ हो तो यात्रा का आनन्द ही कुछ और होता है, यात्रा करना सुगम हो जाता है। परन्तु विश्व का छोटा-बड़ा कैसा भी कलाकार हो, अपनी कला-यात्रा उसे अकेले ही पूरी करनी होती है। फिर वह कला, मूर्तिकला हो या चित्रकला, संगीत हो अथवा साहित्य, कलाकार की शिक्षा, परिस्थितियां, प्रभाव, घटनाएं अथवा साधनों के सभी उपकरण कला के उन्नयन में सहायक या बाधक हो सकते हैं। परन्तु उसकी कला-यात्रा तो उसके स्वयं की साधना, तपस्या श्रम व अन्तर की सौन्दर्य-दृष्टि ही सम्पन्न करती है।
साहित्यकार-वह कवि हो या उपन्यासकार, कथा-लेखक हो या निबंधकार अथवा नाटककार-उसकी रचना-यात्रा केवल उसी की होती है, मात्र उसी की। मुझे कहानी व उपन्यास लिखते भी प्रायः पांच दशक से ऊपर हो गए हैं, अर्थात् सम्पूर्ण आधी सदी की यात्रा। मैंने अपनी पहली कहानी ‘घीसू चमार’ सन् 31 में ग्यारह वर्ष की आयु में लिखी थी, और जब वह इकन्नी के लिफाफे में भरकर भेजी गई कहानी (जिसमें भय के कारण मैंने अपना पता भी नहीं लिखा था) अनायास ही कलकत्ते के उस बाल-पत्र ‘विजय’ में छप गई और अकस्मात् ही बड़े भाई के मित्र ने पत्रिका में मेरठ की ‘कुमारी चन्द्रकिरण’ की रचना पढ़कर ही बड़े भाई से कहा कि ‘‘निश्चय ही यह तेरी छोटी बहिन ने लिखी है।’’ तो मैं सहज ही उस दिन लेखिका बन गई। आज की इस कथा-यात्रा का समस्त श्रेय उस बाल-पत्र के सम्पादक को ही देना होगा क्योंकि यदि मेरा वह प्रथम प्रयास निष्फल हो जाता तो कदाचित् आज दुबारा इकन्नी व्यय करने का साहस न जुटता। रचना छप जाने से मुझे लगा-मैं भी ऐसा लिख सकती हूं, जो छप सकता है। लेखकों से प्रायः एक प्रश्न अवश्य पूछा जाता है-आपकी लेखनी के पीछे कौन-सी प्रेरणा अथवा घटना थी ? मुझसे भी प्रत्येक इण्टरव्यू लेने वाले सज्जन या सजनी ने यह प्रश्न अवश्य किया। परन्तु आपको सच बताऊं-उस किशोर आयु में न तो मेरे आस-पास कोई वाल्मीक जैसी ‘क्रौंच वध’ जैसी करुण घटना घटी थी और न ही तब मैंने पंतजी की वे पंक्तियां ही पढ़ी थीं कि-‘‘वियोगी होगा पहला कवि; आह से निकला होगा गान। निकलकर नयनों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।’’ प्रेरणा के नाम पर जब उतने पीछे मुड़कर देखती हूं तो यही स्मरण होता है कि-मेरी लेखनी का प्रेरणा-स्रोत ‘ईर्ष्या’ में छिपा था। आपको यह बात विचित्र लग सकती है-भला ईर्ष्या के कारण कोई किशोरी लेखिका बन सकती है-इसलिए बात का थोड़ा खुलासा कर दूं-जैसे जन्म या प्रकृति से ही कोई बालक शर्मीला होता है, कोई वाचाल, कोई शान्त स्वभाव का तथा कोई नटखट, उसी प्रकार मेरी मां ने हम दोनों छोटे भाई-बहिन को अलग-अलग श्रेणी प्रदान कर रखी थी-भैया का नाम था लड़ाकू (प्रत्येक दूसरे-चौथे दिन वह साथियों से लड़-झगड़कर माथा, घुटने तुड़वा आता था) और मेरा नाम था पढ़ाकू-अक्षर ज्ञान से आगे बढ़ते ही, पता नहीं कैसे मुझे पुस्तक पढ़ने का जन्मजात रोग लग गया था (उस समय बाल-साहित्य नाम की चिड़िया कहीं नहीं थी। बस एक-आध ‘बाल-सखा’ जैसा पत्र निकलता था)। घर-बाहर, मोहल्ले-पड़ोस जिस किसी के घर मैं जाती, उसके घर की पुस्तकें चाटना ही मेरा एकमात्र खेल था।
पुस्तक होनी चाहिए वह सुखसागर’ हो अथवा ‘प्रेमसागर’, ‘रामचरितमानस’ हो अथवा हातिमताई’ या गुलबकावली’। दस वर्ष की होते न होते मैं अड़ोस-पड़ोस से लेकर ‘चांद’, माधुरी, सरस्वती इत्यादि के अंक भी चाट जाती थी-कितना समझती थी या आत्मसात् करती थी, इसका कोई माप नहीं था। पिताजी आर्यसमाजी थे परन्तु पुराने जमाने के उर्दू-फारसी पढ़े व्यक्ति थे, वे अपने लिए साप्ताहिक पत्र ‘मिलाप’ मंगाते थे, दैनिक उर्दू वतन खरीदते थे। उर्दू में लिखी भारतेन्दु की कुछ पुस्तकें तथा आर्यसमाज की कुछ पुस्तकें भी थीं। एक आलमारी उनसे भरी रहती थी। उन पुस्तकों व अखबारों को पढ़ने के लिए मैंने अपने बाबूजी से उर्दू सीखी-तीन-चार महीने बाद मैं उर्दू छापे की पुस्तकें पढ़ने योग्य हो गई, परन्तु उर्दू के जो साप्ताहिक आते, उन्हें पढ़कर मुझे बड़ी निराशा होती-उनका स्तर ‘चांद’ या ‘माधुरी जैसा नहीं होता था, लेख भी बड़े सतही लगते और उन्हें पढ़कर मैं सोचती- ‘कैसा रद्दी लिखा है-कृष्णजी पर इससे बढ़िया लेख मैं लिख सकती हूं पर मैं एक छोटी लड़की हूँ-बच्चों की रचना भला बड़े लोग क्यों छापने लगे ?’ अपने छोटे होने पर मुझे क्रोध आता, दुःख होता, पर शीघ्र बड़ी होने का कोई उपाय नहीं था। उर्दू अखबारों के विशेषांक रंगीन लाल-नीली स्याही के छापे में छपते। उन रिसालों की रचनाएं पढ़कर, उनकी साज-सज्जा देखकर मेरा मन ईर्ष्या से भर उठता। मैं सोचती, कितने भाग्यवान हैं ये उर्दू के लेखक। कैसी लाल-नीली रोशनाई में छपे हैं। क्या रद्दी कहानी है।
इससे कई गुना अच्छा मैं लिख सकती हूं पर भला मुझे कोई क्यों छापेगा ? निम्न मध्यवर्ग परिवार व मुहल्ले की लड़की थी मैं। मैंने कोई लेखक कभी नहीं देखा था। परन्तु सुदर्शन कौशिक’, ‘प्रेमचन्द’, ‘जी.पी. श्रीवास्तव’ तथा चंडी प्रसाद हृदयेश जी मेरे प्रिय लेखक थे। अनुवादों के द्वारा बंगाल के शरत्-चन्द्र व द्विजेन्द्रलाल राय भी छिटपुट रूप में चख चुकी थी। मुझे प्रेमचन्द व कौशिक की कहानियां बहुत प्रिय थीं।
सन् 30-31 असहयोग आन्दोलन व समाजसुधार के वर्ष थे। अछूतोद्धार, जात-पांत, स्वदेशी इत्यादि पर बाबूजी व उनके मित्र बातें करते-मैं सुनती। मैंने बाबूजी से कई बार कहा-‘‘बाबूजी ! क्या मैं पिकेटिंग नहीं कर सकती ? मैं भी धरना दे सकती हूं। जेल जाकर मिट्टी मिली रोटी भी खा सकती हूं। पड़ोसन दादी से मैंने चरखा चलाना सीख लिया है और उनकी भारी चक्की भी चलाकर देखी है। मुझे कांग्रेस में भरती करा दो न।’’
सरकारी पैंशनर बाबूजी मुझे समझा देते-‘‘नहीं बेटे, कांग्रेस में छोटे बच्चे नहीं लिये जाते-तुम बड़ी हो जाओ तब...।’’ जल्दी बड़े हो जाना तो मेरे बस में नहीं था...बस बाबूजी से जिद्द करके मैं उसी आयु में खद्दर पहनने लगी थी और उनको पकड़कर जलसे-जलूसों में भी चली जाती थी। देशभक्ति और अछूतोद्धार की लहर ने मेरे बालमन को झकझोर दिया था। और कहानी की जगह तुकबन्दी करके, आर्यसमाज के जलसों में पढ़ने व गाने का काम करके मैं अपने बाल-आक्रोश व साहित्यिक ईर्ष्या की पूर्ति करने लगी। एक-दो गीत मुहल्ले की स्त्रियों में भी प्रसिद्ध हुए। एक गीत की बानगी है-
रवि बाबू का यह गीत प्रायः आप सभी ने सुना या पढ़ा होगा-‘एकला चलो, एकला चलो, एकला चलो रे। यदि तोर डाकशुने केउ ना आशे तबे एकला चलो रे। सचमुच ही संसारयात्रा हो या तीर्थयात्रा, यदि उस घड़ी कोई साथी साथ हो तो यात्रा का आनन्द ही कुछ और होता है, यात्रा करना सुगम हो जाता है। परन्तु विश्व का छोटा-बड़ा कैसा भी कलाकार हो, अपनी कला-यात्रा उसे अकेले ही पूरी करनी होती है। फिर वह कला, मूर्तिकला हो या चित्रकला, संगीत हो अथवा साहित्य, कलाकार की शिक्षा, परिस्थितियां, प्रभाव, घटनाएं अथवा साधनों के सभी उपकरण कला के उन्नयन में सहायक या बाधक हो सकते हैं। परन्तु उसकी कला-यात्रा तो उसके स्वयं की साधना, तपस्या श्रम व अन्तर की सौन्दर्य-दृष्टि ही सम्पन्न करती है।
साहित्यकार-वह कवि हो या उपन्यासकार, कथा-लेखक हो या निबंधकार अथवा नाटककार-उसकी रचना-यात्रा केवल उसी की होती है, मात्र उसी की। मुझे कहानी व उपन्यास लिखते भी प्रायः पांच दशक से ऊपर हो गए हैं, अर्थात् सम्पूर्ण आधी सदी की यात्रा। मैंने अपनी पहली कहानी ‘घीसू चमार’ सन् 31 में ग्यारह वर्ष की आयु में लिखी थी, और जब वह इकन्नी के लिफाफे में भरकर भेजी गई कहानी (जिसमें भय के कारण मैंने अपना पता भी नहीं लिखा था) अनायास ही कलकत्ते के उस बाल-पत्र ‘विजय’ में छप गई और अकस्मात् ही बड़े भाई के मित्र ने पत्रिका में मेरठ की ‘कुमारी चन्द्रकिरण’ की रचना पढ़कर ही बड़े भाई से कहा कि ‘‘निश्चय ही यह तेरी छोटी बहिन ने लिखी है।’’ तो मैं सहज ही उस दिन लेखिका बन गई। आज की इस कथा-यात्रा का समस्त श्रेय उस बाल-पत्र के सम्पादक को ही देना होगा क्योंकि यदि मेरा वह प्रथम प्रयास निष्फल हो जाता तो कदाचित् आज दुबारा इकन्नी व्यय करने का साहस न जुटता। रचना छप जाने से मुझे लगा-मैं भी ऐसा लिख सकती हूं, जो छप सकता है। लेखकों से प्रायः एक प्रश्न अवश्य पूछा जाता है-आपकी लेखनी के पीछे कौन-सी प्रेरणा अथवा घटना थी ? मुझसे भी प्रत्येक इण्टरव्यू लेने वाले सज्जन या सजनी ने यह प्रश्न अवश्य किया। परन्तु आपको सच बताऊं-उस किशोर आयु में न तो मेरे आस-पास कोई वाल्मीक जैसी ‘क्रौंच वध’ जैसी करुण घटना घटी थी और न ही तब मैंने पंतजी की वे पंक्तियां ही पढ़ी थीं कि-‘‘वियोगी होगा पहला कवि; आह से निकला होगा गान। निकलकर नयनों से चुपचाप, बही होगी कविता अनजान।’’ प्रेरणा के नाम पर जब उतने पीछे मुड़कर देखती हूं तो यही स्मरण होता है कि-मेरी लेखनी का प्रेरणा-स्रोत ‘ईर्ष्या’ में छिपा था। आपको यह बात विचित्र लग सकती है-भला ईर्ष्या के कारण कोई किशोरी लेखिका बन सकती है-इसलिए बात का थोड़ा खुलासा कर दूं-जैसे जन्म या प्रकृति से ही कोई बालक शर्मीला होता है, कोई वाचाल, कोई शान्त स्वभाव का तथा कोई नटखट, उसी प्रकार मेरी मां ने हम दोनों छोटे भाई-बहिन को अलग-अलग श्रेणी प्रदान कर रखी थी-भैया का नाम था लड़ाकू (प्रत्येक दूसरे-चौथे दिन वह साथियों से लड़-झगड़कर माथा, घुटने तुड़वा आता था) और मेरा नाम था पढ़ाकू-अक्षर ज्ञान से आगे बढ़ते ही, पता नहीं कैसे मुझे पुस्तक पढ़ने का जन्मजात रोग लग गया था (उस समय बाल-साहित्य नाम की चिड़िया कहीं नहीं थी। बस एक-आध ‘बाल-सखा’ जैसा पत्र निकलता था)। घर-बाहर, मोहल्ले-पड़ोस जिस किसी के घर मैं जाती, उसके घर की पुस्तकें चाटना ही मेरा एकमात्र खेल था।
पुस्तक होनी चाहिए वह सुखसागर’ हो अथवा ‘प्रेमसागर’, ‘रामचरितमानस’ हो अथवा हातिमताई’ या गुलबकावली’। दस वर्ष की होते न होते मैं अड़ोस-पड़ोस से लेकर ‘चांद’, माधुरी, सरस्वती इत्यादि के अंक भी चाट जाती थी-कितना समझती थी या आत्मसात् करती थी, इसका कोई माप नहीं था। पिताजी आर्यसमाजी थे परन्तु पुराने जमाने के उर्दू-फारसी पढ़े व्यक्ति थे, वे अपने लिए साप्ताहिक पत्र ‘मिलाप’ मंगाते थे, दैनिक उर्दू वतन खरीदते थे। उर्दू में लिखी भारतेन्दु की कुछ पुस्तकें तथा आर्यसमाज की कुछ पुस्तकें भी थीं। एक आलमारी उनसे भरी रहती थी। उन पुस्तकों व अखबारों को पढ़ने के लिए मैंने अपने बाबूजी से उर्दू सीखी-तीन-चार महीने बाद मैं उर्दू छापे की पुस्तकें पढ़ने योग्य हो गई, परन्तु उर्दू के जो साप्ताहिक आते, उन्हें पढ़कर मुझे बड़ी निराशा होती-उनका स्तर ‘चांद’ या ‘माधुरी जैसा नहीं होता था, लेख भी बड़े सतही लगते और उन्हें पढ़कर मैं सोचती- ‘कैसा रद्दी लिखा है-कृष्णजी पर इससे बढ़िया लेख मैं लिख सकती हूं पर मैं एक छोटी लड़की हूँ-बच्चों की रचना भला बड़े लोग क्यों छापने लगे ?’ अपने छोटे होने पर मुझे क्रोध आता, दुःख होता, पर शीघ्र बड़ी होने का कोई उपाय नहीं था। उर्दू अखबारों के विशेषांक रंगीन लाल-नीली स्याही के छापे में छपते। उन रिसालों की रचनाएं पढ़कर, उनकी साज-सज्जा देखकर मेरा मन ईर्ष्या से भर उठता। मैं सोचती, कितने भाग्यवान हैं ये उर्दू के लेखक। कैसी लाल-नीली रोशनाई में छपे हैं। क्या रद्दी कहानी है।
इससे कई गुना अच्छा मैं लिख सकती हूं पर भला मुझे कोई क्यों छापेगा ? निम्न मध्यवर्ग परिवार व मुहल्ले की लड़की थी मैं। मैंने कोई लेखक कभी नहीं देखा था। परन्तु सुदर्शन कौशिक’, ‘प्रेमचन्द’, ‘जी.पी. श्रीवास्तव’ तथा चंडी प्रसाद हृदयेश जी मेरे प्रिय लेखक थे। अनुवादों के द्वारा बंगाल के शरत्-चन्द्र व द्विजेन्द्रलाल राय भी छिटपुट रूप में चख चुकी थी। मुझे प्रेमचन्द व कौशिक की कहानियां बहुत प्रिय थीं।
सन् 30-31 असहयोग आन्दोलन व समाजसुधार के वर्ष थे। अछूतोद्धार, जात-पांत, स्वदेशी इत्यादि पर बाबूजी व उनके मित्र बातें करते-मैं सुनती। मैंने बाबूजी से कई बार कहा-‘‘बाबूजी ! क्या मैं पिकेटिंग नहीं कर सकती ? मैं भी धरना दे सकती हूं। जेल जाकर मिट्टी मिली रोटी भी खा सकती हूं। पड़ोसन दादी से मैंने चरखा चलाना सीख लिया है और उनकी भारी चक्की भी चलाकर देखी है। मुझे कांग्रेस में भरती करा दो न।’’
सरकारी पैंशनर बाबूजी मुझे समझा देते-‘‘नहीं बेटे, कांग्रेस में छोटे बच्चे नहीं लिये जाते-तुम बड़ी हो जाओ तब...।’’ जल्दी बड़े हो जाना तो मेरे बस में नहीं था...बस बाबूजी से जिद्द करके मैं उसी आयु में खद्दर पहनने लगी थी और उनको पकड़कर जलसे-जलूसों में भी चली जाती थी। देशभक्ति और अछूतोद्धार की लहर ने मेरे बालमन को झकझोर दिया था। और कहानी की जगह तुकबन्दी करके, आर्यसमाज के जलसों में पढ़ने व गाने का काम करके मैं अपने बाल-आक्रोश व साहित्यिक ईर्ष्या की पूर्ति करने लगी। एक-दो गीत मुहल्ले की स्त्रियों में भी प्रसिद्ध हुए। एक गीत की बानगी है-
‘‘अवतार महात्मा गांधी है भारत का भाग्य बनाने
को।’’
(वतर्ज-‘‘बजरंगबली मेरी नाव चली...’)
जरा कृपा की बल्ली लगा देना,
चरखे की तोप चलाकर तुम,
पूनी का गोला लगाकर तुम,
मैनचेस्टर-लंकाशायर की
सारी ही मिलों को उड़ा देना...
अवतार महात्मा...इत्यादि।
(वतर्ज-‘‘बजरंगबली मेरी नाव चली...’)
जरा कृपा की बल्ली लगा देना,
चरखे की तोप चलाकर तुम,
पूनी का गोला लगाकर तुम,
मैनचेस्टर-लंकाशायर की
सारी ही मिलों को उड़ा देना...
अवतार महात्मा...इत्यादि।
कवि सम्मेलनों में उन दिनों समस्या-पूर्तियां होती थीं। बड़ों के सम्मेलन
में बच्चों का क्या काम। फिर घर में, किसी बड़े को, उसमें रुचि भी न थी।
पर आर्यसमाज के जलसों में मैंने उन दिनों गांधी जी, नेहरु जी हकीकतराय,
स्वामी श्रद्धानन्द इत्यादि पर बहुत-सी तुकबन्दियां लिखीं और पढ़ीं भी,
परन्तु सन् तैंतीस लगते ही मुझे बड़ी लड़की मानकर स्कूल से बिठा लिया गया।
तेरह साल की सयानी लड़की अब अकेले जलसों में भी नहीं जा सकती थी। उसी वर्ष
मां चार महीने बीमार रहकर स्वर्गवासिनी हो गई। वे चार महीने मेरे लिए एक
पूरा विश्वविद्यालय बन गए थे-इस अर्थ में कि मां के पास रात को जागने की
ड्यूटी मेरी व बाबूजी की रहती थी और उस जागरण को सुगम बनाने के लिए मंझले
भाई ने मेरठ की दोनों लायब्रेरियों की सदस्यता ग्रहण करके प्रतिदिन दो
पुस्तकें लाने का नियमपूर्वक पालन किया। अर्थात् उन दोनों पुस्तकालयों के
अनूदित व मौलिक, अच्छे व सामान्य सभी लेखकों की पुस्तकें मैंने उन कुछ
महीनों में उदरस्थ कर डालीं।
मां तो चली गयीं। भाभी-विहीन घर की मैं एकमात्र तेरह वर्षीया गृहिणी बन गई। स्कूल छूट गया, कक्षा में सदैव प्रथम आने वाली मैं, घर में कैद रह गई। और मेरी कई सहेलियां नये-नये खुले ‘रघुनाथ गर्ल्स हाई स्कूल’ चली गईं। न सही स्कूल, मैं घर बैठकर जो परीक्षाएं दी जा सकती थीं, वे पास करूंगी। बाबूजी तैयार हो गए। गीताप्रेस गोरखपुर से मैंने रामायण की प्रथमा, मध्यमा पास की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा व विशारद की परीक्षाएं दीं और इस बीच पास पड़ोस की कुरीतियों, जाति-पांति के झगड़ों गरीबी व अशिक्षा की मार को भी देखा, पीड़ा पाई। परदा, बाल-विवाह सब उन दिनों अब से बहुत अधिक था। अन्धविश्वास, झाड़-फूंक बहुत था। परन्तु उसके लिए कुछ कर नहीं पाती थी। मन में केवल निष्फल आक्रोश उबलता रहता, जिसे कभी-कभी कागज के पन्नों पर उतारकर मन का भार हल्का करती, तो वह कहानी बन जाती। सन् तैंतीस से पैंतीस तक आगरा के ‘आर्यमित्र’ में भी मेरी कई रचनाएं छपीं-आज वे सब कहां बिला गई हैं, पता नहीं। सन् छत्तीस में मेरे पिताजी भी अनन्त पथ के यात्री हो गए। वे मेरे पिता थे और साथी भी (या मां के न रहने पर मैं उनकी साथी थी। बड़े भाइयों की तो गृहस्थियां बस गई थीं)। अब मैं नितान्त अकेली थी और मेरे सामने हिन्दू समाज की निम्न मध्यवर्गीय समस्त वर्जनाए थीं। न पढ़ो, न जोर से बोलो, न अकेले निकलो। बस प्रतीक्षा करो, कब भाइयों को मेरे लिए एक अदद वर मिले तो उसके साथ बांधकर वे बहिन के दाय से मुक्ति पायें। बड़े भाई की बहुत-सी चिरौरी करके साहित्यरत्न की परीक्षा देने की अनुमति पायी क्योंकि उन दिनों परीक्षा इलाहाबाद जाकर देनी होती थी। परीक्षा दी।
पहली बार प्रयाग देखा। भारत-भर से आए सौ विद्यार्थियों से मिली। पहली बार श्री रामकुमार वर्मा, श्री धीरेन्द्र वर्मा से परिचय हुआ। पर घर लौटी तो वही तीन कमरों का मकान और सयानी लड़की के बाहर जाने वाले निषेध। अब तो पुस्तकें पढ़ने को भी न मिलती थीं, क्योंकि पुस्तकालयों की पुरानी पुस्तकें अधिकांश मेरी पढ़ी हुई थीं और अब कोई लाने वाला भी न था। कहानी भेजूंगी तो कम-से-कम पत्रिकायें तो आने लगेंगी। लिखने के लिए ये भी एक कारण था। फिर जैसे दुखती आंख में हवा लगने से भी पीड़ा होती है, मुझ जैसी पढ़ाकू के लिए घर-कैद में आस-पास घटने वाली छोटी-मोटी घटना भी नश्तर बनकर चुभती थी और हर चुभन एक कहानी बनकर उतरती थी, दूसरों की पीड़ा में मेरा अपना एकाकीपन भूल जाता था। सन् 37-38-39 में मैंने बहुत लिखा और अब तो सम्पादक स्वयं ही रचनाएं मांगने लगे थे। पत्रिकाएं आने लगी थीं। बेशक मैं यह नहीं जानती थी कि रचना पर पारिश्रमिक भी मिलता है। ‘शांति’, ‘चांद’, माया जीवन सुधा सबमें रचनाएं भेजीं और वे छपी भी। माया के सम्पादक ने मुझे लिखा-आपको हम पांच रुपए प्रति कहानी भेजा करेंगे। पत्र पढ़कर मैं डर गई। वैसे ही बड़े भाई मेरे लिखने-पढ़ने से आजिज थे। पैसा आया तो शायद लिखने पर भी पाबन्दी लग जाए। मैंने उत्तर में लिखा-‘‘भाई साहब ! हरगिज-हरगिज एक भी पैसा मनिआर्डर मत करना, अन्यथा बड़े भाई कहेंगे, ‘अब क्या हम लड़कियों की कमायी खाएँगे ?’ आप मेरा लिखने का सुख भी बन्द करायेंगे क्या ?’’
उन दिनों पंतजी ने ‘रुपाभ’ निकाला। मैंने एक कहानी भेजी ‘अकेला’, पर कहावत है-जहां जाए भूखा वहीं पड़े सूखा, ‘रुपाभ’ छठे अंक के बाद बन्द हो गया। उसी अंक में रचना छपी थी। परन्तु ‘रुपाभ’ के संयुक्त सम्पादक उस समय श्री नरेन्द्र शर्मा थे। उन्होंने मुझे बहिन माना था और मेरी शेष दो रचनाएं श्री भगवती चरण वर्मा को दे दी थीं। उन्होंने कलकत्ते से जो पत्र प्रकाशित किया उसमें वे दोनों छपीं।
प्रशंसा, प्रोत्साहन और प्रकाशन के साथ मेरी कथा यात्रा अग्रसर तो हुई, परन्तु वह समय सहज नहीं बीता। मातृ-पितृहीना मैं, और मेरे समाजभीरु बड़े भाई जिनके सिर पर मैं एक भारी बोझ की तरह थी, उन्हें मेरे उपयुक्त वर नहीं जुटता था। जो लड़की घर में बैठी-बैठी-बैठी साहित्यरत्न पास कर ले, प्रभाकर कर ले, केवल वर्णमाला पुस्तकों के बल पर गुजरती, बंगला, गुरुमुखी सीख ले और लेखिका बन जाए, उसको वे कहां रखें, उठाएं। मैं उन्हें दोषी नहीं मानती। समाज-भर में चर्चा थी, चन्द्रकिरण अखबारों में छपती है। यद्यपि मैंने कभी किसी भी सम्पादक के मांगने पर अपना चित्र छपने नहीं दिया था, पर मोहल्ले में चर्चा तो होती थी। हमारा सम्पूर्ण हिन्दू समाज ही वर्जनाओं और प्रतिबन्धों तथा सड़ी-घुनी मान्यताओं का अथाह सागर था, जिसमें हमारी निम्न मध्यवर्ग की नारी आकंठ डूबी थी। तो मेरी अपनी वर्जनाएं तो किस गिनती में थीं। मैं लिखे बिना रह नहीं सकती थी। दो-चार महीने किसी तरह चुप रहती, फिर लिखती, फिर छपती, फिर चर्चा होती...।
सन् चालीस में विवाह हो गया और मैं देहली आकर, पति के साथ रहकर, घरेलू वर्जनाओं से मुक्ति पा गई। परन्तु मेरा समाज, मेरा परिवेश तो न मुक्त था न सुखी-सम्पन्न। इसलिए लेखनी को तो और पंख लग गए। जो घटना मुझे छूती वही कथा बन जाती। रचना का पात्र मेरे मन की आंखों के समीप होता। मेरी अधिकांश कहानियां समाज के सच्चे पात्रों की गाथा है।
कहानी यदि भूमिका की अपेक्षा रखे तो मैं उसे सफल कहानी नहीं मानती। आलोचना की पात्रता उसका हक भी है, और न्याय भी। इस संग्रह में मेरी 39-40 से लेकर लगभग सन् 50 तक की कहानियों का चयन है। मूल्य पुराने हैं। आज वे अटपटे लग सकते हैं, पर अपने सन्दर्भ में वे सही हैं। मेरी कथा-यात्रा के पात्र मेरे संगी-साथी हैं। सबको मैंने मन का प्यार दिया है। वे बुरे भले जो भी हैं, इसी भूमि की उपज हैं, जहां की मैं हूं, जहां के आप हैं।
आज के पाठक को भी इनमें कुछ मिलेगा, इसी आशा से अपनी बात लिखना बन्द करती हूं।
वन्दे मातरम्।
मां तो चली गयीं। भाभी-विहीन घर की मैं एकमात्र तेरह वर्षीया गृहिणी बन गई। स्कूल छूट गया, कक्षा में सदैव प्रथम आने वाली मैं, घर में कैद रह गई। और मेरी कई सहेलियां नये-नये खुले ‘रघुनाथ गर्ल्स हाई स्कूल’ चली गईं। न सही स्कूल, मैं घर बैठकर जो परीक्षाएं दी जा सकती थीं, वे पास करूंगी। बाबूजी तैयार हो गए। गीताप्रेस गोरखपुर से मैंने रामायण की प्रथमा, मध्यमा पास की। हिन्दी साहित्य सम्मेलन की प्रथमा व विशारद की परीक्षाएं दीं और इस बीच पास पड़ोस की कुरीतियों, जाति-पांति के झगड़ों गरीबी व अशिक्षा की मार को भी देखा, पीड़ा पाई। परदा, बाल-विवाह सब उन दिनों अब से बहुत अधिक था। अन्धविश्वास, झाड़-फूंक बहुत था। परन्तु उसके लिए कुछ कर नहीं पाती थी। मन में केवल निष्फल आक्रोश उबलता रहता, जिसे कभी-कभी कागज के पन्नों पर उतारकर मन का भार हल्का करती, तो वह कहानी बन जाती। सन् तैंतीस से पैंतीस तक आगरा के ‘आर्यमित्र’ में भी मेरी कई रचनाएं छपीं-आज वे सब कहां बिला गई हैं, पता नहीं। सन् छत्तीस में मेरे पिताजी भी अनन्त पथ के यात्री हो गए। वे मेरे पिता थे और साथी भी (या मां के न रहने पर मैं उनकी साथी थी। बड़े भाइयों की तो गृहस्थियां बस गई थीं)। अब मैं नितान्त अकेली थी और मेरे सामने हिन्दू समाज की निम्न मध्यवर्गीय समस्त वर्जनाए थीं। न पढ़ो, न जोर से बोलो, न अकेले निकलो। बस प्रतीक्षा करो, कब भाइयों को मेरे लिए एक अदद वर मिले तो उसके साथ बांधकर वे बहिन के दाय से मुक्ति पायें। बड़े भाई की बहुत-सी चिरौरी करके साहित्यरत्न की परीक्षा देने की अनुमति पायी क्योंकि उन दिनों परीक्षा इलाहाबाद जाकर देनी होती थी। परीक्षा दी।
पहली बार प्रयाग देखा। भारत-भर से आए सौ विद्यार्थियों से मिली। पहली बार श्री रामकुमार वर्मा, श्री धीरेन्द्र वर्मा से परिचय हुआ। पर घर लौटी तो वही तीन कमरों का मकान और सयानी लड़की के बाहर जाने वाले निषेध। अब तो पुस्तकें पढ़ने को भी न मिलती थीं, क्योंकि पुस्तकालयों की पुरानी पुस्तकें अधिकांश मेरी पढ़ी हुई थीं और अब कोई लाने वाला भी न था। कहानी भेजूंगी तो कम-से-कम पत्रिकायें तो आने लगेंगी। लिखने के लिए ये भी एक कारण था। फिर जैसे दुखती आंख में हवा लगने से भी पीड़ा होती है, मुझ जैसी पढ़ाकू के लिए घर-कैद में आस-पास घटने वाली छोटी-मोटी घटना भी नश्तर बनकर चुभती थी और हर चुभन एक कहानी बनकर उतरती थी, दूसरों की पीड़ा में मेरा अपना एकाकीपन भूल जाता था। सन् 37-38-39 में मैंने बहुत लिखा और अब तो सम्पादक स्वयं ही रचनाएं मांगने लगे थे। पत्रिकाएं आने लगी थीं। बेशक मैं यह नहीं जानती थी कि रचना पर पारिश्रमिक भी मिलता है। ‘शांति’, ‘चांद’, माया जीवन सुधा सबमें रचनाएं भेजीं और वे छपी भी। माया के सम्पादक ने मुझे लिखा-आपको हम पांच रुपए प्रति कहानी भेजा करेंगे। पत्र पढ़कर मैं डर गई। वैसे ही बड़े भाई मेरे लिखने-पढ़ने से आजिज थे। पैसा आया तो शायद लिखने पर भी पाबन्दी लग जाए। मैंने उत्तर में लिखा-‘‘भाई साहब ! हरगिज-हरगिज एक भी पैसा मनिआर्डर मत करना, अन्यथा बड़े भाई कहेंगे, ‘अब क्या हम लड़कियों की कमायी खाएँगे ?’ आप मेरा लिखने का सुख भी बन्द करायेंगे क्या ?’’
उन दिनों पंतजी ने ‘रुपाभ’ निकाला। मैंने एक कहानी भेजी ‘अकेला’, पर कहावत है-जहां जाए भूखा वहीं पड़े सूखा, ‘रुपाभ’ छठे अंक के बाद बन्द हो गया। उसी अंक में रचना छपी थी। परन्तु ‘रुपाभ’ के संयुक्त सम्पादक उस समय श्री नरेन्द्र शर्मा थे। उन्होंने मुझे बहिन माना था और मेरी शेष दो रचनाएं श्री भगवती चरण वर्मा को दे दी थीं। उन्होंने कलकत्ते से जो पत्र प्रकाशित किया उसमें वे दोनों छपीं।
प्रशंसा, प्रोत्साहन और प्रकाशन के साथ मेरी कथा यात्रा अग्रसर तो हुई, परन्तु वह समय सहज नहीं बीता। मातृ-पितृहीना मैं, और मेरे समाजभीरु बड़े भाई जिनके सिर पर मैं एक भारी बोझ की तरह थी, उन्हें मेरे उपयुक्त वर नहीं जुटता था। जो लड़की घर में बैठी-बैठी-बैठी साहित्यरत्न पास कर ले, प्रभाकर कर ले, केवल वर्णमाला पुस्तकों के बल पर गुजरती, बंगला, गुरुमुखी सीख ले और लेखिका बन जाए, उसको वे कहां रखें, उठाएं। मैं उन्हें दोषी नहीं मानती। समाज-भर में चर्चा थी, चन्द्रकिरण अखबारों में छपती है। यद्यपि मैंने कभी किसी भी सम्पादक के मांगने पर अपना चित्र छपने नहीं दिया था, पर मोहल्ले में चर्चा तो होती थी। हमारा सम्पूर्ण हिन्दू समाज ही वर्जनाओं और प्रतिबन्धों तथा सड़ी-घुनी मान्यताओं का अथाह सागर था, जिसमें हमारी निम्न मध्यवर्ग की नारी आकंठ डूबी थी। तो मेरी अपनी वर्जनाएं तो किस गिनती में थीं। मैं लिखे बिना रह नहीं सकती थी। दो-चार महीने किसी तरह चुप रहती, फिर लिखती, फिर छपती, फिर चर्चा होती...।
सन् चालीस में विवाह हो गया और मैं देहली आकर, पति के साथ रहकर, घरेलू वर्जनाओं से मुक्ति पा गई। परन्तु मेरा समाज, मेरा परिवेश तो न मुक्त था न सुखी-सम्पन्न। इसलिए लेखनी को तो और पंख लग गए। जो घटना मुझे छूती वही कथा बन जाती। रचना का पात्र मेरे मन की आंखों के समीप होता। मेरी अधिकांश कहानियां समाज के सच्चे पात्रों की गाथा है।
कहानी यदि भूमिका की अपेक्षा रखे तो मैं उसे सफल कहानी नहीं मानती। आलोचना की पात्रता उसका हक भी है, और न्याय भी। इस संग्रह में मेरी 39-40 से लेकर लगभग सन् 50 तक की कहानियों का चयन है। मूल्य पुराने हैं। आज वे अटपटे लग सकते हैं, पर अपने सन्दर्भ में वे सही हैं। मेरी कथा-यात्रा के पात्र मेरे संगी-साथी हैं। सबको मैंने मन का प्यार दिया है। वे बुरे भले जो भी हैं, इसी भूमि की उपज हैं, जहां की मैं हूं, जहां के आप हैं।
आज के पाठक को भी इनमें कुछ मिलेगा, इसी आशा से अपनी बात लिखना बन्द करती हूं।
वन्दे मातरम्।
-चन्द्रकिरण सौनरेक्सा
जवान मिट्टी
मुहल्ले-भर में सबके मुंह में बस एक ही चर्चा थी कि लंगड़ी बिन्दो ने
ससुराल जाने से इन्कार कर दिया। यह ठीक है कि बिन्दो उच्च अभिजात वर्ग की
न होकर पिछवाड़े के खपरैलों की बस्ती में रहने वाली रामदेई नाइन की बेटी
है; फिर भी हिन्दू समाज में सात फेरों की ब्याहता का ससुराल जाने से इनकार
कर देना कोई ऐसा-वैसी घटना नहीं है।
लाला लच्छीमल ने दुकान जाते समय ललाईन से कहा-‘‘देखो जी, बहू-बेटियों का घर है, इस बिन्दो का आना-जाना घर में अधिक मत रखना। हां जी, भला बताओ, ससुराल नहीं जायेगी, तो क्या चूल्हे में रहेगी ? जवान बछेड़ी बिना सवार के, कब किसका खेत चर जाये।’’
ललाईन ने अपनी दो तोले की नथ हिलाकर पास बैठी मिसरानी को सुनाते हुए उत्तर दिया-‘‘तुम भी नन्दू के लाला बस यूं ही रहे। नीच जात का क्या, साल भीतर ही एक छोड़ दो ससुरालें बना लेगी। आजकल महरिएं आठ-दस रुपयों से कम पर बात नहीं करतीं। तुम्हारी बात मानकर बिन्दो का आना बन्द कर दूं, तो बर्तन कौन मांजेगा ?’’
‘‘हां बहू, अपने को क्या ?’’ मिसरानी ने हां में हां मिलाई।
मास्टरनी के घर भी यही कथा हो रही थी। आसपास के घरों की महिलाएं सुन रही थीं और चन्दो धोबिन कपड़े गिनना भूलकर सुना रही थी-‘‘क्या कहूं अम्मा जी ! बस कुछ कहा न जाबे है। बिन्दो अपनी सास पर ऐसी दौड़ी जैसे मांस पर बिलैया कहने लगी, एक बार नहीं, हजार बार नहीं, पंचायत नहीं, पंचायत का बाप बुला ले, पर मैं तेरे घर नहीं जाऊंगी ! एक बार गई तो तूने और तेरे बेटे ने मार-मारकर मुझे लंगडी कर दिया। अब गई तो जीता भी न छोड़ेगी। चुपके से अपने मेरठ चली जा।’’
‘‘अच्छा !’’ घूंघट में रहनेवाली, पांच सयाने बच्चों की मां होने पर भी दिन में सास के सम्मुख मास्टर जी को थाली तक न परोसने वाली मास्टरनी की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।
‘‘अजी, यही नहीं। रामदेइया जब उसे समझाने लगी कि चली जा बेटी; तेरे बाप नहीं, बड़ा भाई नहीं, गुजर तो वहीं पर है, तो उसने उसे भी साफ कह दिया-मेरी जगह तू ही चली जा। मुझे लेने वह मुंहजला आया, तो उसकी मूछें उखाड़ लूंगी।’’
‘‘खाक पड़े ऐसी बेटी पर !’’ मास्टर जी की मां बोली-‘‘ऐसी बेटी का तो मुंह न देखना चाहिए।’’
इस पर सुन्दरिया महरी ने कहा-‘‘उसकी सास ने भी तो कम जुलम नहीं किए। ब्याह पर तो बिन्दो मुश्किल से बारह बरस की होगी। ब्याह के दो बरसों बाद उसे पीहर भेजा, सो भी सब गहने उतारकर। सारे घर का धन्धा, करती थी, फिर भी पेट भर खाना न देती थी। तब तो बिन्दो का बाप जीता था। चार-पांच महीने इलाज कराने पर लौंडिया को अच्छा कर पाया। फिर ले गई, तो तीन बरस में उसे खाट से लगा दिया। पैर में नासूर तक हो गया फिर भी काम लेती रही।’’
लाला लच्छीमल ने दुकान जाते समय ललाईन से कहा-‘‘देखो जी, बहू-बेटियों का घर है, इस बिन्दो का आना-जाना घर में अधिक मत रखना। हां जी, भला बताओ, ससुराल नहीं जायेगी, तो क्या चूल्हे में रहेगी ? जवान बछेड़ी बिना सवार के, कब किसका खेत चर जाये।’’
ललाईन ने अपनी दो तोले की नथ हिलाकर पास बैठी मिसरानी को सुनाते हुए उत्तर दिया-‘‘तुम भी नन्दू के लाला बस यूं ही रहे। नीच जात का क्या, साल भीतर ही एक छोड़ दो ससुरालें बना लेगी। आजकल महरिएं आठ-दस रुपयों से कम पर बात नहीं करतीं। तुम्हारी बात मानकर बिन्दो का आना बन्द कर दूं, तो बर्तन कौन मांजेगा ?’’
‘‘हां बहू, अपने को क्या ?’’ मिसरानी ने हां में हां मिलाई।
मास्टरनी के घर भी यही कथा हो रही थी। आसपास के घरों की महिलाएं सुन रही थीं और चन्दो धोबिन कपड़े गिनना भूलकर सुना रही थी-‘‘क्या कहूं अम्मा जी ! बस कुछ कहा न जाबे है। बिन्दो अपनी सास पर ऐसी दौड़ी जैसे मांस पर बिलैया कहने लगी, एक बार नहीं, हजार बार नहीं, पंचायत नहीं, पंचायत का बाप बुला ले, पर मैं तेरे घर नहीं जाऊंगी ! एक बार गई तो तूने और तेरे बेटे ने मार-मारकर मुझे लंगडी कर दिया। अब गई तो जीता भी न छोड़ेगी। चुपके से अपने मेरठ चली जा।’’
‘‘अच्छा !’’ घूंघट में रहनेवाली, पांच सयाने बच्चों की मां होने पर भी दिन में सास के सम्मुख मास्टर जी को थाली तक न परोसने वाली मास्टरनी की आंखें आश्चर्य से फैल गईं।
‘‘अजी, यही नहीं। रामदेइया जब उसे समझाने लगी कि चली जा बेटी; तेरे बाप नहीं, बड़ा भाई नहीं, गुजर तो वहीं पर है, तो उसने उसे भी साफ कह दिया-मेरी जगह तू ही चली जा। मुझे लेने वह मुंहजला आया, तो उसकी मूछें उखाड़ लूंगी।’’
‘‘खाक पड़े ऐसी बेटी पर !’’ मास्टर जी की मां बोली-‘‘ऐसी बेटी का तो मुंह न देखना चाहिए।’’
इस पर सुन्दरिया महरी ने कहा-‘‘उसकी सास ने भी तो कम जुलम नहीं किए। ब्याह पर तो बिन्दो मुश्किल से बारह बरस की होगी। ब्याह के दो बरसों बाद उसे पीहर भेजा, सो भी सब गहने उतारकर। सारे घर का धन्धा, करती थी, फिर भी पेट भर खाना न देती थी। तब तो बिन्दो का बाप जीता था। चार-पांच महीने इलाज कराने पर लौंडिया को अच्छा कर पाया। फिर ले गई, तो तीन बरस में उसे खाट से लगा दिया। पैर में नासूर तक हो गया फिर भी काम लेती रही।’’
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